प्रेम


लेख - प्रदीप कुमार पाण्डेय

प्रेम शब्द जितना छोटा है उसकी गहराई उतनी ही ज्यादा है । प्रेम अन्तर्मन का विषय है, बुद्धि का नहीं है परन्तु दुर्भाग्यवश वर्तमान समय में लोगों ने प्रेम को बुद्धि का विषय बना लिया है, वासना और आवश्यकता को प्रेम का नाम लोग देने लगे हैं । जिस प्रकार हर इन्सान का जीवन जीने तरीका, जीवन के अपने खट्ठे मीठे अनुभव और जीवन के प्रति अपना दृष्टिकोण होने के कारण जीवन को परिभाषित नहीं किया जा सकता उसी प्रकार प्रेम को भी शब्दों की सीमा में बाँधा नहीं जा सकता है ।

प्रेम के लिए कोई भी कारण नहीं होता जिस प्रेम का कारण बताया जा सके, वह प्रेम नहीं है।

प्रेम किसी के लिए आदत जैसा है, तो किसी के लिए जरुरत जैसा। प्रेम किसी के लिए जिम्मेदारी है, तो किसी के लिए वफादारी। किसी का प्रेम लालसा है, तो किसी का वासना। कोई स्वयं की सुविधा देखकर प्रेम करता है, तो कोई आपसी योग्यता देखकर। किसी का प्रेम मोह हैं, तो किसी का स्वार्थ। अड़चन यही है कि किसी का भी प्रेम, "प्रेम" जैसा नहीं है। इन सबमे प्रेम की एक झलक मिलती है। सब प्रेम के करीब ले जाते हैं, पर "प्रेम" हो नहीं पाता। ऐसा प्रेम, सम्बन्धो से जुड़कर, शब्दों में ढलकर खंड- खंड हो जाता है, पर प्रेम हो नहीं पाता। सच तो यह है कि हम सब कुछ करते हैं, बस प्रेम नहीं करते। यही कारण है, हमने प्रेम को इतने नाम दिए हैं और असफल हुए हैं।

प्रेम के साथ क्यों का कोई भी संबंध नहीं है। प्रेम कोई व्यवसाय नहीं है। प्रेम के भीतर हेतु होता ही नहीं। प्रेम अकारण भाव—दशा है। न कोई शर्त है, न कोई सीमा है। "क्यों" का पता चल जाए, तो प्रेम का रहस्य ही समाप्त हो गया।प्रेम का कभी भी शास्त्र नहीं बन पाता। प्रेम के गीत हो सकते हैं।
प्रेम का कोई शास्त्र नहीं, कोई सिद्धांत नहीं।
प्रेम मस्तिष्क की बात नहीं है।
मस्तिष्क की होती, तो क्यों का उत्तर मिल जाता। प्रेम हृदय की बात है। वहाँ क्यों का कभी प्रवेश ही नहीं होता है । क्योंकि, क्यों है मस्तिष्क का प्रश्न; और प्रेम है हृदय का आविर्भाव। इन दोनों का कहीं मिलना नहीं होता। इसलिए जब प्रेम होता है, तो बस होता है—
बेबूझ, रहस्यपूर्ण। अज्ञात ही नहीं—अज्ञेय। ऐसा भी नहीं कि
किसी दिन हम लेंगें। इसीलिए तो किसी ने कहा कि प्रेम परमात्मा है। इस पृथ्वी पर प्रेम एक अकेला अनुभव है, जो परमात्मा के संबंध में थोड़ा इंगित करता है।
ऐसे ही परमात्मा हैं—अकारण, अहैतुक। ऐसे ही परमात्मा हैं—
रहस्यपूर्ण। ऐसे ही परमात्मा हैं,
जिसका कि हम आर—पार न पा सकेंगे। प्रेम उनकी पहली झलक है।
प्रेम....पारस है, जिसे छू ले, उसे कुंदन कर दे!!!
प्रेम इबादत है जिसे हो जाएँ, उसे ईश्वर कर दे !!!
प्रेम की मंजिल नहीं, जिसे हो जाएँ उसे मुसाफिर कर दे!!!
प्रेम तपस्या है जिसे हो जाएँ, उसे फकीर कर दे !!!
प्रेम गजब है, जिसे हो जाएँ उसे अजब कर दे...!!!



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